एक भेड़िया धंसान वाले मुल्क में।
अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बनी
गोल मेहराब और ऊंची छत वाली इमारत में
जिसमें लंबी लटकी पाइप से।
चौड़ी पत्तियों वाला पंखा घूम रहा है।
उसी समय के साथ।
समय गुजरता रहा है।
पंखा चलता रहा।
समय पता नहीं कहां गया।
पंखा वही का वही है।
चलते चलते भी रुका हुआ पंखा
एक रोज देखता है कि
उस साखू की कुर्सी पर
वही रोज वाला व्यक्ति
कोई काला सा लबादा ओढ़े हुए बैठ जाता है
रोज की तरह
बैठ जाता है वो उसी आत्मविश्वास के साथ कि
आज फिर वो भी वो कर देगा
दूध का दूध और पानी का पानी।
रोज की तरह
उसे विश्वास है खुद पर
उसे विश्वास है उन सभी संभावित बहसों पर
दलीलों पर और गवाहों पर।
जिन्हें सुन कर,देख कर,महसूस कर
वो कर देगा दूध का दूध और पानी का पानी
और बन्द आँखों के बावजूद भी
उस तराजू के दोनों पलड़े रहेंगे बराबर।
हमेशा की तरह।
पंखा चलते हुए ये सोच ही रहा था कि
तभी बाहर से आवाज आई।
शोर की,नारों की,ज़िंदाबाद की।
ढोल पिटे जा रहे थें।
उस कर्कश आवाज में पंखे की आवाज खो सी गई।
वो लबादा ओढ़े हुए आदमी पूछता है
क्या हुआ बाहर?
बाहर से आवाज आती है।
इंसाफ हुआ है।
बहुत तेज।
समय के रफ्तार से भी तेज।
फैसला हो चुका था।
उसी भेड़िया धंसान वाले में मुल्क में
लोग खुश थे,उछल रहे थे।
तालियां बजा रहे थें।
इतना ज्यादा,इतना ज्यादा।
इतना ज्यादा की उतना ज्यादा तो।
दुःखी भी नहीं थे उस अपराध के
हो जाने से.....।
इंसाफ जो हो चुका था।
इंसाफ जो साफ था जनता की नजर में।
ये सोच कर वो लबादा ओढ़े व्यक्ति
बैठा रहा उसी साखू की कुर्सी पर।
सोचता रहा अपनी अनिवार्यता के बारे में।
कि मैं जरूरी हूँ या नहीं?
और बीतते वक़्त के साथ
पंखा ये भी देख रहा है।
और सोच रहा है कि
अब न्यायालय का सम्मान
सिर्फ हॉर्न नहीं बजाने में ही होगा।
इस भेड़िया धंसान वाले मुल्क में।
मनीष यादव।