Friday, January 28, 2011

जाने कहाँ गये वो दिन.....?

माफ़ कीजियेगा ये पोस्ट जरा देर से सम्पादित कर रहा हु....
आज कल हम एक दुसरे को नव वर्ष की शुभ कामना देने में लगे हुए है. लेकिन जरा आज मेरे कहने से आप अपने बचपने में जा कर एक बार उस वक़्त के नव वर्ष अवसर को याद कीजिये. और पता लगाईये की हम आज जब सुचना और संचार के अब तक से सबसे विकसित पीढ़ी में जी रहे है. जब हमारे पास संचार के अनगिनत साधन उपलब्ध है. तब भी हम एक दुसरे से कितने दूर और कितने पास है?
कोई बात नही अगर मेरा अनुभव आप से मेल नही करता तो.
लेकिन जब मै अपने बचपन में गया तो मुझे कुछ ऐसा पता चला...
पहले जब हम लोग छोटे थे तब हम लोगो ये नही पता था की नव वर्ष रात के १२ बजे से ही शुरु हो जाता है. तो इस जानकारी के आभाव में हम लोग नव वर्ष प्रात: काल से ही मनाते थे.उस वक़्त हम लोगो के पास छोटे छोटे ग्रीटिंग्स कार्ड होते थे. उस पर छोटी छोटी कविताये लिखी होती थी... जैसे- टमाटर के रस को जुश कहते है और ग्रीटिंग्स न देने वाले को क्न्जुश कहते है.
एक बात और थी की उस वक़्त भी हम लोगो में प्रतिस्पर्धा रहती की हमे औरो की तुलना में कितने ज्यादा ग्रीटिंग्स मिली है,मैंने किसको दी और किसने मुझको नही दी.
हम लोग शुबह से ही एक दुसरे के घर जाना शुरू कर देते थे.हाला की मै लेट हो जाता था क्यों की रास्ते में सायकिल की चेन उतर जाती थी.उसको खुद से बनाना भी पड़ता था.उस वक़्त और लेट होता था जब पीछे वाला चेन उतर जाता था.
अगर किसी को ग्रीटिंग्स नही मिली और वो अपने ग्रीटिंग्स के बारे में कुछ पूछ लिया तो तो उससे हमे झूट भी बोलना पड़ता था की "दोस्त तुम्हारी वाली मै घर पर ही भूल आया हु." कल ले लेना.
इस तरह हम लोग पुरे दिन नव वर्ष मानते थे.
अब चलिए बात आज की करते है.......
आज हम नव वर्ष की सारी बारीकियो को जानते है की नव वर्ष रात के १२ बजे से शुरु होता है.और उसे हम शिला की जवानी के साथ मानते भी है. आज हमारे पास एस.एम.एस है जिसे जरिये हम एक दुसरे को रात के १२ बजे ही बधाई दे सकते है.लेकिन उस संदेश में टमाटर के रस जैसे बाते नही बल्कि आने वाले साल से जुडी तमाम अच्छी बातो की कल्पना की जाती है.आज हमारे पास वक़्त नही की हम किसी के घर जा सके. आज हम किसी को अगर बधाई देना भूल गये तो और अगले ने अगर उसके बारे में पूछ लिया तो एक तकनीक वाला झूठ अक्सर बोला जाता है की मैंने मोबाइल बदल लिया है और सारे के सारे नम्बर इधर उधर हो गये है.जब की उस झूठ को सुनने वाला भी वह झूठ उससे पहले न जाने कितने लोगो से बोल चूका होता है.
अब जरा इन दोनों बातो का उपसंहार निकालते है की कल हमारे पास स्लैम्बूक था और आज फेसबुक है, कल हम लोगो के पास ग्रीटिंग्स थी और आज मोबाइल, ऑरकुट है.
कल लोगो का एक दुसरे के साथ मेल था और आज हर एक दुसरे के पास इ मेल है. कल हमारे पास लिखने को छोटी छोटी कविता थी और आज लिखने की अच्छे अच्छे विचार है. कल हमारे पास रस्ते में धोका देने वाली सायकिल थी आज हम लोगो के पास उससे अच्छे अच्छे साधन है. कल के हमारे झूठ में मासूमियत थी और आज के झूठ में एक औपचारिकता. कल हम लोग शुबह से नव वर्ष मानते ठेव और आज हम लोग पूरी रात मानते है लेकिन वो कल के जैसे अपनापन नही दीखता.
कल हम हम लोग शुबह उठ कर मंदिर जाते थे और आज रात में १२ बजे मदिरालय जाते है.कल हम लोग स्कुलो में देश भक्ति कविताये सुनते थे और आज हमारे बीच ,हमारे चैनलों पर शिला और मुन्नी दिखाई देती है.
कही न कही हम पहले से ज्यादा विचारवान ,विकसित और रंगीन हो गये है लेकिन हमारा कल का नव वर्ष मनाने का तरीका ही हमको बेमिसाल लगता है .
क्या वो कल एक बार फिर से वापस नही आ सकता ?
हम आज एक दुसरे के पास हो कर भी दूर क्यों है...?मुझे इसका उत्तर नही मिल पा रहा है....
मेरा मन तो मुझ से पूछ रहा है की जाने कहाँ गये वो दिन...?

2 comments:

  1. बड़ा ही सार्थक सर्थक चिंतन है आप का मित्र...लोग कहते हैं हम पहले असभ्य थे अब सभ्य हो रहे हैं ...पर ज़माने का चलन देख मुझे थोडा कनफ्यूजन होता है....पहले हम नव वर्ष की शुभ उठ कर बड़ों को प्रणाम करते थे..नहाते थे और ये सोचते थे की इस साल हम कुछ अच्छा करेंगे..फिर एक दुसरे को हाथों से बनी ग्रीटिंग देते थे .....खैर तब प्यार हुआ करता था और आज तो ये औपचरिकता भर लगता है.....आज तो नए साल का जश्न जैसा की आप ने बताया ..शीला की जवानी के बगैर नही पूरा होता.....क्या यही हमारे सभ्य होने पहचान है क्या वाकई हम असभ्य से सभ्य हो रहे हैं....????यह सोचने का विषय है.इस बेहतरीन लेख के लिए आप को बधाई.....

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  2. आपका विचार नेक है पर भावनाओं को साझा करने का तरीका गलत ऐसा नहीं लगता कि आप भाषण दे रहे हैं या लोगों की निजी जीवन को बदलने की कोशिश में हैं चलिए कक्षा में इस पर विस्तार से बात होगी

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