इनमे से कोई नही ..।
ये विकल्प हम आम लोगों की आम सी जिंदगी मे कितना खास फैसला होता है ये हम सभी जानते है बेशक इस विकल्प को चुनते वक़्त हम एक निराशा के भाव मे डूब जाते है लेकिन आइये हम सब इस उस वक़्त पर गौर करे जब हम इस विकल्प को चुनते है
याद कीजिये किसी सिंगल काउंटर की कपड़े की दुकान जहा हम कोई शर्ट या पैंट खरीदने जाते है और दुकानदार एक एक कर के कई वेरायटी के कपड़ों की झड़ी लगा देता है और साथ ही हर कपड़े के साथ ये भी कहता है की ये सर जी ,"आपको ये कपड़ा बहुत जँचेगा "
लेकिन अक्सर ऐसा होता है की आपको उस कपड़ो के ढेर मे से कोई भी कपड़ा पसंद नही आता है आप कुछ सोच ही रहे होते है तभी दुकानदार आपसे पूछता है की सर जी ," कौन सा पैक कर दू "?
अब कितनी मुश्किल होती आपको ये कहने मे की इनमे से कोई नही
बेशक कुछ लोग ऐसे भी होते है जो ऐसे ही कह कर भी निकल लेते है लेकिन जो व्यक्ति जरा सी भी गंभीरता से कपड़ों को पसंद करता है उसको ये बात कहना की "इनमे से कोई नही" इसके बाद उसको दुकानदार को ये जवाब भी देना पड़ता है की क्यू इनमे से कोई नही ?
ऐसे मे हम आम लोग कभी दुकानदार के दबाव मे आकर , कभी उसके प्रश्नो से निरुत्तर हो कर उस कपड़े को निराश मन से खरीद ही लेते है
लेकिन जब से मॉल संस्कृति आयी है और कपड़ो के बड़े बड़े शो रूम खुल गए है हम आम लोगो को बहुत सहूलियत हो गयी है हम कपड़ा देखते है फिर मूल्य देखते है उसके बाद उसको ट्रायल रूम मे जा कर पहनते भी है फिर समझ मे आता है तो लेते है वरना शो रूम मे काही भी रख कर चलता बनते है
वहाँ हम आसानी से विकल्प चुन लेते है की " इनमे से कोई नही "
आज माननीय सुप्रीम कोर्ट ने मतदान मे भी ये विकल्प रखने का आदेश चुनाव आयोग को दिया है क्यू की कोर्ट ने भी आम ग्राहक जो आम मतदाता भी है उसकी पसंद को परखा है और उसकी निराशा को महसूस किया है लेकिन अब सोचना ये होगा की इनमे से कोई नही के विकल्प का विकल्प क्या होगा ?
और देखना ये भी ये भी होगा की कही इस विकल्प का प्रयोग ऐसा न हो जैसा की की शॉपिंग मॉल के ग्राहक विंडोज शॉपिंग मे करते है अर्थात वो जाते है की उनको खरीदना कुछ नही है फिर भी पैकिंग सबकी खुलवा देते है
इसलिए सरकार को ये सोचना होगा की कोई नही के विकल्प के आगे का क्या विकल्प होगा ?
और आम जनता को सोचना होगा की क्या सच मे अब कोई विकल्प नही ?
ये विकल्प हम आम लोगों की आम सी जिंदगी मे कितना खास फैसला होता है ये हम सभी जानते है बेशक इस विकल्प को चुनते वक़्त हम एक निराशा के भाव मे डूब जाते है लेकिन आइये हम सब इस उस वक़्त पर गौर करे जब हम इस विकल्प को चुनते है
याद कीजिये किसी सिंगल काउंटर की कपड़े की दुकान जहा हम कोई शर्ट या पैंट खरीदने जाते है और दुकानदार एक एक कर के कई वेरायटी के कपड़ों की झड़ी लगा देता है और साथ ही हर कपड़े के साथ ये भी कहता है की ये सर जी ,"आपको ये कपड़ा बहुत जँचेगा "
लेकिन अक्सर ऐसा होता है की आपको उस कपड़ो के ढेर मे से कोई भी कपड़ा पसंद नही आता है आप कुछ सोच ही रहे होते है तभी दुकानदार आपसे पूछता है की सर जी ," कौन सा पैक कर दू "?
अब कितनी मुश्किल होती आपको ये कहने मे की इनमे से कोई नही
बेशक कुछ लोग ऐसे भी होते है जो ऐसे ही कह कर भी निकल लेते है लेकिन जो व्यक्ति जरा सी भी गंभीरता से कपड़ों को पसंद करता है उसको ये बात कहना की "इनमे से कोई नही" इसके बाद उसको दुकानदार को ये जवाब भी देना पड़ता है की क्यू इनमे से कोई नही ?
ऐसे मे हम आम लोग कभी दुकानदार के दबाव मे आकर , कभी उसके प्रश्नो से निरुत्तर हो कर उस कपड़े को निराश मन से खरीद ही लेते है
लेकिन जब से मॉल संस्कृति आयी है और कपड़ो के बड़े बड़े शो रूम खुल गए है हम आम लोगो को बहुत सहूलियत हो गयी है हम कपड़ा देखते है फिर मूल्य देखते है उसके बाद उसको ट्रायल रूम मे जा कर पहनते भी है फिर समझ मे आता है तो लेते है वरना शो रूम मे काही भी रख कर चलता बनते है
वहाँ हम आसानी से विकल्प चुन लेते है की " इनमे से कोई नही "
आज माननीय सुप्रीम कोर्ट ने मतदान मे भी ये विकल्प रखने का आदेश चुनाव आयोग को दिया है क्यू की कोर्ट ने भी आम ग्राहक जो आम मतदाता भी है उसकी पसंद को परखा है और उसकी निराशा को महसूस किया है लेकिन अब सोचना ये होगा की इनमे से कोई नही के विकल्प का विकल्प क्या होगा ?
और देखना ये भी ये भी होगा की कही इस विकल्प का प्रयोग ऐसा न हो जैसा की की शॉपिंग मॉल के ग्राहक विंडोज शॉपिंग मे करते है अर्थात वो जाते है की उनको खरीदना कुछ नही है फिर भी पैकिंग सबकी खुलवा देते है
इसलिए सरकार को ये सोचना होगा की कोई नही के विकल्प के आगे का क्या विकल्प होगा ?
और आम जनता को सोचना होगा की क्या सच मे अब कोई विकल्प नही ?
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