Friday, August 12, 2011

उपहार को अधिकार मानना गलती है..............?

आरक्षण फिल्म पर बहस पुरे देश में जारी है की आरक्षण सही है या गलत ?
आखिर जरूरत क्यों हुई आरक्षण की? क्या जिस उद्देश्य को ले कर आरक्षण लाया गया था वो पूरा हो पाया...?
अगर बात केवल फिल्मो की करे तो इस तरह हो हल्ला मचाना बहुत ही हास्यास्पद लगता है . जिस प्रकार दलितों तथाकथित मसीहा या प्रतिनिधि पि.डी कैमरा और संगन की सुनहरी और दुधिया लाइट में दलितों की बात करते है तथा अपने अपने बयानों की वजह से दलितों और पिछडो को खुद अपने ही मुह से ये याद दिलाते है की इस समाज उनकी क्या औकात है...?
अभी एक समाचार चैनल में पी. एल. पुनिया ने इस फिल्म का एक संवाद बताया की जिसमे कहा गया है की दलितों के कपड़ो से बदबू आती है और वो बहुत गंदे होते है इस्सलिये सवर्णों के लडके उनके साथ नही पढाई करेंगे...
मतलब की फिल्म से पहले ही उन्होने द्तिलो की स्थिति अपने मुह से बता दि. लेकिन यह नही सोचा की जो दशा फिल्म में दर्शायी जा रही है वो सही है या गलत...?
अगर गलत है तो निश्चय ही उस दृश्य को हटा देना चाहिए. लेकिन अगर सही है तो वो खुद अनुसूचित जाति जनजाति के अध्यक्ष है तो दलितों की यह स्थिति कब सुधरेगी?
रही बात आरक्षण की तो हमारी सरकार ने दलितों के लिए केवल दो चीजे ही आरक्षित की है...
१ - एक रेडियम का बना हुआ बोर्ड जो की रात में भी साफ साफ पढ़ा जा सके जिस पर की लिखा होता दलित बस्ती ...क्यों की दलित बस्ती में बिजली तो आती ही नही ...
२ - और एक सरकारी शराब देशी शराब की दुकान जिससे की वो दलित जिनता मजदूरी कर के कमाते है उतना शाम को थकन मिटने के नाम पर जमा कर आते है...
लेकिन किसी सरकार ने दलितों के लिए एक अच्छा स्कूल, अच्छा अस्पताल आरक्षित नही किया....
लेकिन जब दलित समाज और पिछड़ा समाज प्रथमिक रूप से ही शिक्षित और स्वस्थ्य नही रहेगा तो फिर उसको आप उच्चतर शिक्षाओ में २७ % तो क्या १००% भी आरक्षण दे दे तो भी कोई प्रभाव नही पड़ता..
नेताओ ने मांग की इस फिल्मो की कुछ दृश्यों को को कट दिया जाये और तब फिल्म दिखाई जाये....
मतलब की आज तक हम रियल्टी शो के नाम पर किसी को ट्यूब लाइट तोड़ते देखते आये तो किसी नेता नही कुछ नही किया लेकिन जब आज किसी ने सच मुच में जब रियलटी दिखने की कोशिस की तो इनको तकलीफ होने लगी....
आखिर इस तकलीफ की क्या वजह है?
जहा तक आरक्षण की बात है तो आज भारत में केवल जातिगत आरक्षण ही नही है...
आरक्षण के और भी रूप है...जैसे की. एन सी सी , स्पोर्ट, केन्द्रीय मंत्रीका कोटा, स्वत्न्र्ता सेनानी , भूत पूर्व सैनिक और हर संस्थान के कर्मचारी का एक अलग कोटा होता है..
तो अगर विकलांग कोटे को छोड़ कर देखा जाये तो बाकि सब कोटे ऐसे लगते है की एक उपहार के तौर पर दिए गये है ...
और फिल्म में भी आरक्षण को कैस्रत ही कहा गया है...जो की अभी एक था कथी अगड़े समाज द्वारा कहा जाता है ...तो जब इस उपहार को दलितों ने अपना अधिकार समझ लिया तो क्या बुरा किया?
आखिर समाज की रचना करते वक़्त या फिर समाज को ब्राम्हण , क्षत्रिय ,वैश्य और शुद्र में बाटते वक़्त किसने उनको अधिकार दिया ने निर्धारित करने का की फलां ये कम करेगे और फलां ये काम....
हमारे ही समाज बुद्धजीवियो द्वारा यह खिची हुई लाइन है...
रही बात दुसरे पक्ष यह भी नही नकारा जा सकता की दोनों तरफ से कुछ अपात्र लोग भी सुविधा के पात्र हो जा रहे है और पात्र लोग नही....
लेकिन जिस स्थिति की कल्पना कर के आरक्षण का प्रावधान किया गया था वो आज भी साकार नही हुआ है...सिर्फ और सिर्फ हमारी सरकारों के कारण
देश के जितने भी दलित आगे है वो या तो नेता है या नेता के रिश्तेदार . बाकि दलितों को न तो शिक्षा मिली न रोजगार....
मिलातो सिर्फ एक सस्ते गल्ले की सरकारी दुकान जिसका ठेका भी नेताओ के चाटुकारों को मिलता है...
और मिला तो भारत सेकर की तरफ से उनके बच्चो को मिड -डे- मिल में घटिया खिचड़ी ..
और जब चुनाव आया तो उस दलित बस्ती में पहुचा दिया पेटी का पेटी देशी शराब...
फिर ले लिया वोट और छोड़ दिया सबको उसकी में मरने क लिए कभी डेंगू से कभी मलेरिया....तो कभी बाढ़ से
दलितों को न तो शिक्षा दि गयी और न तो उनको समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास किया गया....
उनको हमेशा उस स्थान पर रखा गया है जिससे की उनका सही रूप से भावात्मक इस्तेमाल किया जा सके .....
मै अपने उत्तर प्रदेश का उदाहरण दूंगा आपको ...बहुजन समाज पार्टी जो की दलितों की बहुत मसीहा मानी जाती है लेकिन फीर भी उत्तर प्रदेश में दलित आगे क्यों नही है?
उसका कारण सिर्फ और सिर्फ यही है की मायावती ने दलितों को भावत्मक रूप से धोका दिया है...
महात्मा बुद्ध और अम्बेडकर जी जैसे म्हापुरुसो के नाम पर उन भोले भाले दलितों को धोका दिया है...
अगर मायावती जी दलितों की शुभचिंतक है तो क्यों आपने सवर्णों को तिक्त दिया और दलितों का वोट लिया....?
क्यों नही दलितों को ही टिकट दिया ...?
सो दलित .पिछड़ा ,आरक्षण पर बहस कभी भी एयर कंडीसन में नही हो सकती जरूरी है की हमको इसके लिए सतही तौर पर विचारना होगा....
और फिल्मो पर रोक लगाना और ये निशी करना की जनता को क्या दिखाना है और क्या नही यह बहुत ही निंदनीय है.....
स्वंत्रतता भी हमको नही मिली होती अगर हमने पत्रकारिता का सहारा नही लिया होता....
आप सबको हमारी तरफ से स्वंत्रतता दिवस की हार्दिक शुभ कामनाये....


Wednesday, August 10, 2011

खुशियों की होम डिलेवरी...........

नमस्कार मित्रो......
आज का सब्जेक्ट आप सब लोगो के लिए है...
एक बात तो मै दावे के साथ सकता हु की आप लोग खुश नही होंगे ...खुश होने का मतलब की कोई न कोई परेशानी हम सबको है . लेकिन ऐसा क्यों है?
जब की हम लोगो के पास दुनिया की हर ख़ुशी पाने का एक रास्ता है jrur है....
लेकिन फिर भी हम खुश नही है...
इस निष्कर्ष पर पहुचने की बहुत दिलचस्प कहानी है ...
हुआ यू की मै अभी थोड़ी देर पहले टी . वी. देख रहा था और टी.वी. पर न्यूज देख रहा था तभी बीच में ब्रेक आ गया..
अब तो यही भी समझ में नही आता की न्यूज में ब्रेक आता है की ब्रेक में न्यूज....?
हमको लगता है की ब्रेक में ही न्यूज दिखाते है तभी तो ब्रेकिंग न्यूज कहते है......
हम मुद्दे पर आते है....
हम खुद की ख़ुशी की बात कर रहे थे न....
हमने जो विज्ञापन देखा उन सबको देख कर हमको ये लगा की अगर किसी के पास टी. वी है और टी. वी का रिमोट है तो सारी खुशिया उसके पास है ...
जरा सोचिये की किसी को खुश होने के लिए क्या चाहिए ?
उसको चाहिए की उसकी हर तरफ लोग झूमे, गाए, नाचे और हर तरफ धूम मची हो मस्ती की ...तो कितनी आसान है ये हमारी ख़ुशी...टाटा स्काई लगा डाला तो लाइफ जिनगा लाला ...
मतलब की जीवन का हर काम ख़ुशी खुशी होगा. लेकिन फिर भी आपको खुशियों की चाभी नही मिली तो निराश मत होईये इसका भी उपाय है हमारी टी.वी में...
टाटा नैनो खुशीयो की चाभी...उसके बावजूद भी अगर आप चाभी से संतुस्ट नही है दुनिया को jitne का मन है तो आप ऐसा भी कर सकते है...
घबराइए मत आपको इसके लिए कोई यौद्धा नही बनना होगा... बस एक काम...मुह में रजनी गंधा और कदमो में दुनिया ...
दुनिया कदमो में है में लेकिन फिर भी दिल को सुकून है इसका भी रास्ता है...रिलायंस अपनाईये...मतलब कर लो दुनिया मुट्ठी में ..
इसका मतलब की आप आजाद हो गये...अगर नही हुए तो कोई बात नही...रिलायंस छोडिये एयर टेल लाईये क्यों ऐसी आजादी और कहाँ...?
इतनी सारी खुशियों के बाद हमको नही लगता की कुछ छुट भी गया होगा....
अगर छुट गया होगा तो वो कसर हेयर एंड केयर से ले कर फेयर एंड लवली पूरा कर देंगे....
जीते जी अगर खुशियों से मन नही भरा तो आपके पास अभी और विकल्प भी है...
यह विकल्प तो आज कल dual सिम के मोबाइल से भी ज्यादा कारगर है....
वो है एल आई सी मतलब की जिन्दगी के साथ भी और जिन्दगी के बाद भी...

ये तो बात हुई निजी कंपनियों के विज्ञापन की अब तो ये निजी कंपनियों के विज्ञापन सरकारी विज्ञापन को भी ठेंगा दिखा रहे है...
मलतब की इनका कांफिडेंस इतना हो गया है की एक विज्ञापन ने तो परिवार नियोजन तक अपने उत्त्पाद से जोड़ दिया...
अभी हल ही में एक विज्ञापन आना शुरू हुआ की इंडिया की पापुलेशन कंट्रोल में रहेगी क्यों अब इण्डिया इस बीजी ऑन आईडिया थ्री जी...
हाला की अभिषेक बच्चन ने बताया की उसका बेबी बेफोरे थ्री जी है...
तभी तो उनके बेबी पर करोरो का सट्टा भी से लग चूका है...
है न मजेदार बात की जिसको ढूंढा गली गली वो तो हमारे टी.वी में मिली....
यह सब सोच कर मै खुश हो ही रहा था की एक विज्ञापन आया और मै कल्पना के उडान बरने के बाद बहुत तेजी से वास्तविकता की धरातल पर लैंड कर गया ...
वो विज्ञापन था एक cream की कम्पनी का....
नाम था गार्नियर... उस विज्ञापन के अंत में एक हिरोइन ने बहुत मासूमियत से kha की अपना ख्याल रखना....
मतलब की हमको फ्री में ख़ुशी कोई नही दे सकता..
आम आदमी को खुद ही अपनी life को झिंगालाला बनाना पड़ता है....
चाहे उन सबने लक्स की बनियान ही क्यों न पहनी हो...क्यों लक्स कहता है की अपना लक पहन कर चलो ...
हमे सब कुछ खुद की करना होता है क्यों की खुशीयो की होम डिलेवरी कही नही होती ... बस डोमिनोस पिज्जा को छोड़ कर...

Sunday, August 7, 2011

फ्रेंडशिप डे के साइड इफ्फेक्ट ........

मेरे ब्लॉग पर एक बार फिर आपका स्वागत है....

और मेरा भी मेरे ब्लॉग पर स्वागत है.....

क्या है न की मै खुद एक लम्बे अन्तराल के बाद आज आपलोगों से मुखातिब हो रहा हूँ........

इसकी वजह कुछ खास तो नही बस यह मान लीजिये की माहौल कुछ अनुकूल हो गया ...

जिसने हमको लिखने को मजबूर कर दिया ...

पहली वजह यह है की आज रविवार है. जिससे की मेरे पास वक़्त है .औए दूसरी वजह की मेरे पास सब्जेक्ट है जिस पर की बिना कोई दबाव लिखा जा सकता है...

आज जब मै सुबह जगा तो देखा की मेरे मोबाईल पर रोज की तुलना में कुछ ज्यादा ही संदेश आये है.उनमे से कुछ ऐसे भी थे जिनके संदेश रोज ही आते थे और कुछ ऐसे भी जिनकी याद हमको भी आज ही आई जैसे की उनको हमारी याद संदेश भेजते वक़्त जब लोगो को एक साथ फोनबुक से मार्क किया होगा तब आई होगी.

वैसे उन्स्बके संदेश में एक समानता थी जो उनकी और हमारी मित्रता की और इशारा करती थी...

और मै ये जान चूका था की कितने लोगो को मेरी ख़ुशी में ही उनकी ख़ुशी दिखाई देती है....

ये सोचे बगैर की ये औपचारिकता का रायता कितना फ़ैल चूका है सुबह..सुबह ..

वैसे तो वो लोग जो हमको रोज संदेश भेजते थे रोज उनके संदेशो में फुल, गुलाब, कांटे,खुदा , जैसे शब्द होते थे जिनका अर्थ अंत में यही निकलता था की दुनिया की सारी ख़ुशी हमको ही मिल जाये भले ही वो लोग झुनझुना बजाते रहे ....

लेकिन आज उन लोगो ने भी हमको लोग सबकी तरह अंग्रेजी के संदेश किया था जिसमे वाकई कठिन शब्दों का प्रयोग हुआ था लेकिन सबके अंत में हैप्पी फ्रेंडशिप डे लिखा होने के कारण उन सभी संदेशो का सारगर्भित अर्थ समझ में आ गया ..

फिर मैंने सोचा की आज फ्रेंडशिप डे के बारे में ही जाने की कोशिश करते है...

फिर मैंने इसके बारे में इंटरनेट पर खोजना शुरू किया तो वहा भी अंग्रेजी में बहुत कुछ था लेकिन हमको जितना समझ में आया वो वो है की हर काम की तरह इस काम की शुरुवात में भी अमेरिका ने बाजी मारी

अर्थार्थ सर्वप्रथम यूनाइटेड स्टेट कांग्रेस ने १९३५ ये निश्चय किया की वो अगस्त के प्रथम रविवार को फ्रेंडशिप डे मनाएगी .....हाला की यह भी कहा गया है की इसकी शुरुवात सर्वप्रथम जोएक हॉल ने की १९१९ में की जो हॉल मार्क मानक ग्रीटिंग कार्ड नामक कम्पनी के संस्थापक थे...

और भी चीजो का अनुवाद करने पर हमको पता चला की यह उस वक़्त की पाश्चात्य सभ्यता में लोगो का एक दुसरे पर असीम विश्वास औए एक दुसरे से प्रेम जताने के लिए भी इस दिवस को बनाया गया...

और उसके बारे में नीचे कुछ पवित्र बाइबिल की पंक्तिया भी लिखी थी...

मांगो तुम्हे मिल जायेगा ...

खोजो तुम्हे प्राप्त हो जायेगा....

खटखटआओ तुम्हारे लिए खोल दिया जायेगा....

ये था फ्रेंडशिप डे का मूल स्वरूप ...

अब बारी आती है हमारे देश की ..

चुकी हमारा देश नमक जैसा है जो किसी भी सभ्यता .रहन ,सहन जैसे द्रव में आसानी से घुल मिल जाता है ...

बात चाहे फ्रेंड शिप डे की हो या वेन्ल्तैन डे की.....

नतीजन भारत में भी यह मनाया जाने लगा....

चुकी शुरू में यही सोच रही होगी जो अमेरिका थी मतलब की परस्पर मेल जोल...

फिर मै जब इतना कुछ जान कर सडक पर निकला तो देखा की यहा फ्रेंड शिप बैंड भी एक दुसरे को दिया जाता है ...

फिर मैंने लोगो की कलाईयों को निहारने लगा की किसके पास कितना बैंड है....

तो मैंने देखा की जिन लडको की जींस कमर के बिलकुल निचले हिस्से पर टिकी थी, और जिसने अपने बाल और दाढ़ी पर बहुत ज्यादा प्रयोग किया था और जिनका चश्मा काम और नाक के बजाये कहीऔर टिका हुवा था ...

उनके हाथो में फ्रेंड शिप बैंड बहुत देखे गये....

लेकिन जिनलोगो ने अपनी जींस को एकदम उचित स्थानों पर टिका कर उसको बेल्ट से बांध भी लिया था, जिसने अपने बालो और दाढ़ी को उसके मूल स्वरूप में रखा था , और अगर चस्मा था भी तो होने का उचित कारण और टिकाने का वैधानिक स्थान था.

लेकिन ऐसे लोगो के हाथ इस फ्रेंड शिप बैंड से की तंगी से जूझ रहे रहे थे जैसे की आज कल फ्रेंड शिप डे का जन्मदाता अम्रीका जूझ रहा है...

अब सवाल यह उठता है की क्या ऐसे लोगो का सच में कोई मित्र नही होगा..? और होंगे भी तो वो सुचना के किस संसार में जी रहे है की उनको पता नही है की आज मेरे मित्र को फ्रेंडशिप बैंड देना है...

फिर हमको लगा की शायद ऐसे लोग औपचारिकता में यकीन नही करते है...

और हम जानकार और काबिल बनने के चक्कर में इन मोबाईल कंपनियों को केवल एक दिन में करोरो का फायदा पहुचा देते है..

और खुद का गवा देते है...

और फिर कहते है की मंदी आ गयी और फला पार्टी जिम्मेदार है इसकी ....

बल्कि जिम्मेदार हम लोग है इसके क्यों की हम जानते है की अगर भारत की अर्थ व्यवस्था टिकी है तो केवल जमा पूजी के कारण ही...

इन दिवसों के कारण हम न जाने कितना रुपया डालर में बदल कर विदेश भेज देते है ...के ऍफ़ सी और डोमिनो पीज्जा के रस्ते....

अत: हमको विलायती भाषा ही अपनानी चाहिए वनस्पत विलायती खान पान , रहन सहन के.....

अगर हम सच में अमेरिका बनाना चाहते है तो आज अमेरिका का वर्तमान देख लीजिये क्यों अगर हम सच में अमेरिका बनेगे तो निश्चय ही यह हमारा आर्थिक भविष्य होगा.....