Friday, August 12, 2011

उपहार को अधिकार मानना गलती है..............?

आरक्षण फिल्म पर बहस पुरे देश में जारी है की आरक्षण सही है या गलत ?
आखिर जरूरत क्यों हुई आरक्षण की? क्या जिस उद्देश्य को ले कर आरक्षण लाया गया था वो पूरा हो पाया...?
अगर बात केवल फिल्मो की करे तो इस तरह हो हल्ला मचाना बहुत ही हास्यास्पद लगता है . जिस प्रकार दलितों तथाकथित मसीहा या प्रतिनिधि पि.डी कैमरा और संगन की सुनहरी और दुधिया लाइट में दलितों की बात करते है तथा अपने अपने बयानों की वजह से दलितों और पिछडो को खुद अपने ही मुह से ये याद दिलाते है की इस समाज उनकी क्या औकात है...?
अभी एक समाचार चैनल में पी. एल. पुनिया ने इस फिल्म का एक संवाद बताया की जिसमे कहा गया है की दलितों के कपड़ो से बदबू आती है और वो बहुत गंदे होते है इस्सलिये सवर्णों के लडके उनके साथ नही पढाई करेंगे...
मतलब की फिल्म से पहले ही उन्होने द्तिलो की स्थिति अपने मुह से बता दि. लेकिन यह नही सोचा की जो दशा फिल्म में दर्शायी जा रही है वो सही है या गलत...?
अगर गलत है तो निश्चय ही उस दृश्य को हटा देना चाहिए. लेकिन अगर सही है तो वो खुद अनुसूचित जाति जनजाति के अध्यक्ष है तो दलितों की यह स्थिति कब सुधरेगी?
रही बात आरक्षण की तो हमारी सरकार ने दलितों के लिए केवल दो चीजे ही आरक्षित की है...
१ - एक रेडियम का बना हुआ बोर्ड जो की रात में भी साफ साफ पढ़ा जा सके जिस पर की लिखा होता दलित बस्ती ...क्यों की दलित बस्ती में बिजली तो आती ही नही ...
२ - और एक सरकारी शराब देशी शराब की दुकान जिससे की वो दलित जिनता मजदूरी कर के कमाते है उतना शाम को थकन मिटने के नाम पर जमा कर आते है...
लेकिन किसी सरकार ने दलितों के लिए एक अच्छा स्कूल, अच्छा अस्पताल आरक्षित नही किया....
लेकिन जब दलित समाज और पिछड़ा समाज प्रथमिक रूप से ही शिक्षित और स्वस्थ्य नही रहेगा तो फिर उसको आप उच्चतर शिक्षाओ में २७ % तो क्या १००% भी आरक्षण दे दे तो भी कोई प्रभाव नही पड़ता..
नेताओ ने मांग की इस फिल्मो की कुछ दृश्यों को को कट दिया जाये और तब फिल्म दिखाई जाये....
मतलब की आज तक हम रियल्टी शो के नाम पर किसी को ट्यूब लाइट तोड़ते देखते आये तो किसी नेता नही कुछ नही किया लेकिन जब आज किसी ने सच मुच में जब रियलटी दिखने की कोशिस की तो इनको तकलीफ होने लगी....
आखिर इस तकलीफ की क्या वजह है?
जहा तक आरक्षण की बात है तो आज भारत में केवल जातिगत आरक्षण ही नही है...
आरक्षण के और भी रूप है...जैसे की. एन सी सी , स्पोर्ट, केन्द्रीय मंत्रीका कोटा, स्वत्न्र्ता सेनानी , भूत पूर्व सैनिक और हर संस्थान के कर्मचारी का एक अलग कोटा होता है..
तो अगर विकलांग कोटे को छोड़ कर देखा जाये तो बाकि सब कोटे ऐसे लगते है की एक उपहार के तौर पर दिए गये है ...
और फिल्म में भी आरक्षण को कैस्रत ही कहा गया है...जो की अभी एक था कथी अगड़े समाज द्वारा कहा जाता है ...तो जब इस उपहार को दलितों ने अपना अधिकार समझ लिया तो क्या बुरा किया?
आखिर समाज की रचना करते वक़्त या फिर समाज को ब्राम्हण , क्षत्रिय ,वैश्य और शुद्र में बाटते वक़्त किसने उनको अधिकार दिया ने निर्धारित करने का की फलां ये कम करेगे और फलां ये काम....
हमारे ही समाज बुद्धजीवियो द्वारा यह खिची हुई लाइन है...
रही बात दुसरे पक्ष यह भी नही नकारा जा सकता की दोनों तरफ से कुछ अपात्र लोग भी सुविधा के पात्र हो जा रहे है और पात्र लोग नही....
लेकिन जिस स्थिति की कल्पना कर के आरक्षण का प्रावधान किया गया था वो आज भी साकार नही हुआ है...सिर्फ और सिर्फ हमारी सरकारों के कारण
देश के जितने भी दलित आगे है वो या तो नेता है या नेता के रिश्तेदार . बाकि दलितों को न तो शिक्षा मिली न रोजगार....
मिलातो सिर्फ एक सस्ते गल्ले की सरकारी दुकान जिसका ठेका भी नेताओ के चाटुकारों को मिलता है...
और मिला तो भारत सेकर की तरफ से उनके बच्चो को मिड -डे- मिल में घटिया खिचड़ी ..
और जब चुनाव आया तो उस दलित बस्ती में पहुचा दिया पेटी का पेटी देशी शराब...
फिर ले लिया वोट और छोड़ दिया सबको उसकी में मरने क लिए कभी डेंगू से कभी मलेरिया....तो कभी बाढ़ से
दलितों को न तो शिक्षा दि गयी और न तो उनको समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास किया गया....
उनको हमेशा उस स्थान पर रखा गया है जिससे की उनका सही रूप से भावात्मक इस्तेमाल किया जा सके .....
मै अपने उत्तर प्रदेश का उदाहरण दूंगा आपको ...बहुजन समाज पार्टी जो की दलितों की बहुत मसीहा मानी जाती है लेकिन फीर भी उत्तर प्रदेश में दलित आगे क्यों नही है?
उसका कारण सिर्फ और सिर्फ यही है की मायावती ने दलितों को भावत्मक रूप से धोका दिया है...
महात्मा बुद्ध और अम्बेडकर जी जैसे म्हापुरुसो के नाम पर उन भोले भाले दलितों को धोका दिया है...
अगर मायावती जी दलितों की शुभचिंतक है तो क्यों आपने सवर्णों को तिक्त दिया और दलितों का वोट लिया....?
क्यों नही दलितों को ही टिकट दिया ...?
सो दलित .पिछड़ा ,आरक्षण पर बहस कभी भी एयर कंडीसन में नही हो सकती जरूरी है की हमको इसके लिए सतही तौर पर विचारना होगा....
और फिल्मो पर रोक लगाना और ये निशी करना की जनता को क्या दिखाना है और क्या नही यह बहुत ही निंदनीय है.....
स्वंत्रतता भी हमको नही मिली होती अगर हमने पत्रकारिता का सहारा नही लिया होता....
आप सबको हमारी तरफ से स्वंत्रतता दिवस की हार्दिक शुभ कामनाये....


Wednesday, August 10, 2011

खुशियों की होम डिलेवरी...........

नमस्कार मित्रो......
आज का सब्जेक्ट आप सब लोगो के लिए है...
एक बात तो मै दावे के साथ सकता हु की आप लोग खुश नही होंगे ...खुश होने का मतलब की कोई न कोई परेशानी हम सबको है . लेकिन ऐसा क्यों है?
जब की हम लोगो के पास दुनिया की हर ख़ुशी पाने का एक रास्ता है jrur है....
लेकिन फिर भी हम खुश नही है...
इस निष्कर्ष पर पहुचने की बहुत दिलचस्प कहानी है ...
हुआ यू की मै अभी थोड़ी देर पहले टी . वी. देख रहा था और टी.वी. पर न्यूज देख रहा था तभी बीच में ब्रेक आ गया..
अब तो यही भी समझ में नही आता की न्यूज में ब्रेक आता है की ब्रेक में न्यूज....?
हमको लगता है की ब्रेक में ही न्यूज दिखाते है तभी तो ब्रेकिंग न्यूज कहते है......
हम मुद्दे पर आते है....
हम खुद की ख़ुशी की बात कर रहे थे न....
हमने जो विज्ञापन देखा उन सबको देख कर हमको ये लगा की अगर किसी के पास टी. वी है और टी. वी का रिमोट है तो सारी खुशिया उसके पास है ...
जरा सोचिये की किसी को खुश होने के लिए क्या चाहिए ?
उसको चाहिए की उसकी हर तरफ लोग झूमे, गाए, नाचे और हर तरफ धूम मची हो मस्ती की ...तो कितनी आसान है ये हमारी ख़ुशी...टाटा स्काई लगा डाला तो लाइफ जिनगा लाला ...
मतलब की जीवन का हर काम ख़ुशी खुशी होगा. लेकिन फिर भी आपको खुशियों की चाभी नही मिली तो निराश मत होईये इसका भी उपाय है हमारी टी.वी में...
टाटा नैनो खुशीयो की चाभी...उसके बावजूद भी अगर आप चाभी से संतुस्ट नही है दुनिया को jitne का मन है तो आप ऐसा भी कर सकते है...
घबराइए मत आपको इसके लिए कोई यौद्धा नही बनना होगा... बस एक काम...मुह में रजनी गंधा और कदमो में दुनिया ...
दुनिया कदमो में है में लेकिन फिर भी दिल को सुकून है इसका भी रास्ता है...रिलायंस अपनाईये...मतलब कर लो दुनिया मुट्ठी में ..
इसका मतलब की आप आजाद हो गये...अगर नही हुए तो कोई बात नही...रिलायंस छोडिये एयर टेल लाईये क्यों ऐसी आजादी और कहाँ...?
इतनी सारी खुशियों के बाद हमको नही लगता की कुछ छुट भी गया होगा....
अगर छुट गया होगा तो वो कसर हेयर एंड केयर से ले कर फेयर एंड लवली पूरा कर देंगे....
जीते जी अगर खुशियों से मन नही भरा तो आपके पास अभी और विकल्प भी है...
यह विकल्प तो आज कल dual सिम के मोबाइल से भी ज्यादा कारगर है....
वो है एल आई सी मतलब की जिन्दगी के साथ भी और जिन्दगी के बाद भी...

ये तो बात हुई निजी कंपनियों के विज्ञापन की अब तो ये निजी कंपनियों के विज्ञापन सरकारी विज्ञापन को भी ठेंगा दिखा रहे है...
मलतब की इनका कांफिडेंस इतना हो गया है की एक विज्ञापन ने तो परिवार नियोजन तक अपने उत्त्पाद से जोड़ दिया...
अभी हल ही में एक विज्ञापन आना शुरू हुआ की इंडिया की पापुलेशन कंट्रोल में रहेगी क्यों अब इण्डिया इस बीजी ऑन आईडिया थ्री जी...
हाला की अभिषेक बच्चन ने बताया की उसका बेबी बेफोरे थ्री जी है...
तभी तो उनके बेबी पर करोरो का सट्टा भी से लग चूका है...
है न मजेदार बात की जिसको ढूंढा गली गली वो तो हमारे टी.वी में मिली....
यह सब सोच कर मै खुश हो ही रहा था की एक विज्ञापन आया और मै कल्पना के उडान बरने के बाद बहुत तेजी से वास्तविकता की धरातल पर लैंड कर गया ...
वो विज्ञापन था एक cream की कम्पनी का....
नाम था गार्नियर... उस विज्ञापन के अंत में एक हिरोइन ने बहुत मासूमियत से kha की अपना ख्याल रखना....
मतलब की हमको फ्री में ख़ुशी कोई नही दे सकता..
आम आदमी को खुद ही अपनी life को झिंगालाला बनाना पड़ता है....
चाहे उन सबने लक्स की बनियान ही क्यों न पहनी हो...क्यों लक्स कहता है की अपना लक पहन कर चलो ...
हमे सब कुछ खुद की करना होता है क्यों की खुशीयो की होम डिलेवरी कही नही होती ... बस डोमिनोस पिज्जा को छोड़ कर...

Sunday, August 7, 2011

फ्रेंडशिप डे के साइड इफ्फेक्ट ........

मेरे ब्लॉग पर एक बार फिर आपका स्वागत है....

और मेरा भी मेरे ब्लॉग पर स्वागत है.....

क्या है न की मै खुद एक लम्बे अन्तराल के बाद आज आपलोगों से मुखातिब हो रहा हूँ........

इसकी वजह कुछ खास तो नही बस यह मान लीजिये की माहौल कुछ अनुकूल हो गया ...

जिसने हमको लिखने को मजबूर कर दिया ...

पहली वजह यह है की आज रविवार है. जिससे की मेरे पास वक़्त है .औए दूसरी वजह की मेरे पास सब्जेक्ट है जिस पर की बिना कोई दबाव लिखा जा सकता है...

आज जब मै सुबह जगा तो देखा की मेरे मोबाईल पर रोज की तुलना में कुछ ज्यादा ही संदेश आये है.उनमे से कुछ ऐसे भी थे जिनके संदेश रोज ही आते थे और कुछ ऐसे भी जिनकी याद हमको भी आज ही आई जैसे की उनको हमारी याद संदेश भेजते वक़्त जब लोगो को एक साथ फोनबुक से मार्क किया होगा तब आई होगी.

वैसे उन्स्बके संदेश में एक समानता थी जो उनकी और हमारी मित्रता की और इशारा करती थी...

और मै ये जान चूका था की कितने लोगो को मेरी ख़ुशी में ही उनकी ख़ुशी दिखाई देती है....

ये सोचे बगैर की ये औपचारिकता का रायता कितना फ़ैल चूका है सुबह..सुबह ..

वैसे तो वो लोग जो हमको रोज संदेश भेजते थे रोज उनके संदेशो में फुल, गुलाब, कांटे,खुदा , जैसे शब्द होते थे जिनका अर्थ अंत में यही निकलता था की दुनिया की सारी ख़ुशी हमको ही मिल जाये भले ही वो लोग झुनझुना बजाते रहे ....

लेकिन आज उन लोगो ने भी हमको लोग सबकी तरह अंग्रेजी के संदेश किया था जिसमे वाकई कठिन शब्दों का प्रयोग हुआ था लेकिन सबके अंत में हैप्पी फ्रेंडशिप डे लिखा होने के कारण उन सभी संदेशो का सारगर्भित अर्थ समझ में आ गया ..

फिर मैंने सोचा की आज फ्रेंडशिप डे के बारे में ही जाने की कोशिश करते है...

फिर मैंने इसके बारे में इंटरनेट पर खोजना शुरू किया तो वहा भी अंग्रेजी में बहुत कुछ था लेकिन हमको जितना समझ में आया वो वो है की हर काम की तरह इस काम की शुरुवात में भी अमेरिका ने बाजी मारी

अर्थार्थ सर्वप्रथम यूनाइटेड स्टेट कांग्रेस ने १९३५ ये निश्चय किया की वो अगस्त के प्रथम रविवार को फ्रेंडशिप डे मनाएगी .....हाला की यह भी कहा गया है की इसकी शुरुवात सर्वप्रथम जोएक हॉल ने की १९१९ में की जो हॉल मार्क मानक ग्रीटिंग कार्ड नामक कम्पनी के संस्थापक थे...

और भी चीजो का अनुवाद करने पर हमको पता चला की यह उस वक़्त की पाश्चात्य सभ्यता में लोगो का एक दुसरे पर असीम विश्वास औए एक दुसरे से प्रेम जताने के लिए भी इस दिवस को बनाया गया...

और उसके बारे में नीचे कुछ पवित्र बाइबिल की पंक्तिया भी लिखी थी...

मांगो तुम्हे मिल जायेगा ...

खोजो तुम्हे प्राप्त हो जायेगा....

खटखटआओ तुम्हारे लिए खोल दिया जायेगा....

ये था फ्रेंडशिप डे का मूल स्वरूप ...

अब बारी आती है हमारे देश की ..

चुकी हमारा देश नमक जैसा है जो किसी भी सभ्यता .रहन ,सहन जैसे द्रव में आसानी से घुल मिल जाता है ...

बात चाहे फ्रेंड शिप डे की हो या वेन्ल्तैन डे की.....

नतीजन भारत में भी यह मनाया जाने लगा....

चुकी शुरू में यही सोच रही होगी जो अमेरिका थी मतलब की परस्पर मेल जोल...

फिर मै जब इतना कुछ जान कर सडक पर निकला तो देखा की यहा फ्रेंड शिप बैंड भी एक दुसरे को दिया जाता है ...

फिर मैंने लोगो की कलाईयों को निहारने लगा की किसके पास कितना बैंड है....

तो मैंने देखा की जिन लडको की जींस कमर के बिलकुल निचले हिस्से पर टिकी थी, और जिसने अपने बाल और दाढ़ी पर बहुत ज्यादा प्रयोग किया था और जिनका चश्मा काम और नाक के बजाये कहीऔर टिका हुवा था ...

उनके हाथो में फ्रेंड शिप बैंड बहुत देखे गये....

लेकिन जिनलोगो ने अपनी जींस को एकदम उचित स्थानों पर टिका कर उसको बेल्ट से बांध भी लिया था, जिसने अपने बालो और दाढ़ी को उसके मूल स्वरूप में रखा था , और अगर चस्मा था भी तो होने का उचित कारण और टिकाने का वैधानिक स्थान था.

लेकिन ऐसे लोगो के हाथ इस फ्रेंड शिप बैंड से की तंगी से जूझ रहे रहे थे जैसे की आज कल फ्रेंड शिप डे का जन्मदाता अम्रीका जूझ रहा है...

अब सवाल यह उठता है की क्या ऐसे लोगो का सच में कोई मित्र नही होगा..? और होंगे भी तो वो सुचना के किस संसार में जी रहे है की उनको पता नही है की आज मेरे मित्र को फ्रेंडशिप बैंड देना है...

फिर हमको लगा की शायद ऐसे लोग औपचारिकता में यकीन नही करते है...

और हम जानकार और काबिल बनने के चक्कर में इन मोबाईल कंपनियों को केवल एक दिन में करोरो का फायदा पहुचा देते है..

और खुद का गवा देते है...

और फिर कहते है की मंदी आ गयी और फला पार्टी जिम्मेदार है इसकी ....

बल्कि जिम्मेदार हम लोग है इसके क्यों की हम जानते है की अगर भारत की अर्थ व्यवस्था टिकी है तो केवल जमा पूजी के कारण ही...

इन दिवसों के कारण हम न जाने कितना रुपया डालर में बदल कर विदेश भेज देते है ...के ऍफ़ सी और डोमिनो पीज्जा के रस्ते....

अत: हमको विलायती भाषा ही अपनानी चाहिए वनस्पत विलायती खान पान , रहन सहन के.....

अगर हम सच में अमेरिका बनाना चाहते है तो आज अमेरिका का वर्तमान देख लीजिये क्यों अगर हम सच में अमेरिका बनेगे तो निश्चय ही यह हमारा आर्थिक भविष्य होगा.....





Friday, May 6, 2011

चोरो और आतंकवादियो को जनरल नालेज न बनाये

नमस्कार मित्रो...
एक लम्बे अन्तराल के बाद मै आप लोगो के बीच एक बार फिर हाजिर हु..
क्या करे आज कल का माहौल बहुत गर्म है. महिना भी गर्मी का है और semestr परीक्षा भी दिमाग गर्म की हुई है साथ ही साथ इस सेमेस्टर मैंने क्लास कुइच कम की तो गुरु जी का दिमाग भी गर्म है .
अभी इन सब गर्मियों को कम करने में लगा था तभी अमेरिका ने लादेन को मार गिराया और फिर मेरी गर्मी बढ़ गयी..
इस गर्मी का कारण था की अब लादेन तो निपट गया छोड़ गया गया तो अपने कुकृत्य जो अब जनरल नालेज कर रूप में बदल गये है ...
और हमको अभी कई जगह दाखिला लेने के प्रवेश परीक्षा देनी है जिसकी तैया मैंने पूरी कर ली थी लेकी अब ये मारा गया सो इसके बारे में भी पढना पड़ेगा...
सो मेरी दिमाग की गर्मी और बढ़ गयी..
अभी मै इसकी मौत के बाद मै इसके बारे में पढ़ रहा था की ये क्या है? कितना पैसा है इसके पास ? क्या करता है?कैसे करता है?
तो मेरे दिमाग में ये बात आई की इन आतंकवादियो और घपलेबाजो , चोरो को देश से भले न निकला जाये लेकीन जनरल नालेज से जरुर निकल दिया जाये..
हम कल अपना देश चलायेगे कोई टीचर बनेगा, कोई पुलिस बनेगा , कोई अभियंता बनेगा, कोई पत्रकार बनेगा , बनेगा या नही बनेगा इन लादेन और कलमाड़ी जैसे आतंकवादी और चोरो के बारे में क्यों पढ़ेगा..?
चोरो के बारे में जान कर कोई पुलिस कैसे बन सकता है...?
हमारे देश में सब्जेक्ट की कमी है क्या ?
इन सब के बारे में पढ़ते वक़्त कही न कही दिमाग में ऐसी बात जरुर आती है की ये तो बन गया जो इसको बनना था लेकी हमारे देश का शासन कितना कमजोर है की इनलोगों करने देता है जो ये करना चाहते है...और फिर दिमाग गुस्सा आ जाता है अपने देश के शासन के प्रति...
अभी जब लादेन मर था तो उसके बाद अख़बार में निकला था की सउदी अरब की ८०% सदके इसके बाप की कम्पनी ने बनवाई है और इसने सिविल इंजीनियरिंग की पढाई की थी..इत्यादि..
तो जो भी सिविल इंजीनियरिंग लड़का पढ़ा उसको एक अजीब सा गर्व हुआ ..
और जो भी लादेन के बारे में पढ़ा उनमे से अधिकतर लोगो ने यही कहा की जो भी हो इसने अमेरिका को पानी पिला दिया...
ये बाते कही न कही प्रदर्शित करती थी की की लोग न चाहते हुए भी लादेन से प्रभावित है...
लेकिन सत्य यही है की लोग प्रभावित हो जाते है इन लोगो के बारे में जान कर..
सो हमको यही लगता है की अगर हमको एक स्वस्थ्य भारत का निर्माण करना है तो किताबो , मिडिया और जो भी संचार के माध्यम है इन सबको चोरो से दूर रखना होगा...

Tuesday, April 12, 2011

हर गली में एक अन्ना की जरूरत है

इस वक़्त हर जगह केवल अन्ना हजारे को ले कर ही बात हो रही है | और क्यों न हो जब देश की जनता ने अन्ना के मागो का बिना किसी शर्त समर्थन जो किया है | मात्र ९७ घंटे में हमारी सरकार को को लग गया की जनता क्या चाहती है ?
लोगो ने आपने इरादे बता दिए की हमको लोकपाल विधयक चाहिए ही चाहिए |
लेकिन एक बात है की जितने लोगो ने समर्थन किया या उसमे से कुछ लोग ही इस मुद्दे को भली भाती जानते थे की इससे क्या हमको फायदा हो सकता है ? बाकि सब लोग तो मीडिया के कैमरे के फ्रेम के बीचो बीच ही आना चाहते थे...
खैर जो भी ये बात तो माननी पड़ेगी जब इस तरह के लोगो के साथ अन्ना ने सरकार को ९७ घंटे में हिला कर रख दिया लेकिन जब लोग ऐसे मुद्दे को लेकर जागरूक हो जाये तो हमारी सरकार को हिलने में ज्यादा वक़्त नही लगेगा ...
जो भी बिल भी बन गया गया है अब देखना ये है की इसका उपयोग कैसे होता है?
क्यों की अभी जो इसके वजह से हालत बनते हमको दिख रहे है उससे हमको पता चल रहा है की इस लोक पल बिल के जरिये भी बहुत राजनीती होने वाली है | और अभी कई दिनों तक समाचार पत्रों में इसका मुख्य स्थान रहेगा और आम आदमी जो दिन भर दाल रोटी की जुगाड़ में प्रेषण रहता है एक दिन उब कर के इसके बारे में पढना ही छोड़ देगा की इस बिल का क्या हुआ ?
और यह बिल केवल समान्य ज्ञान का एक मुद्दा बन कर रह जायेगा...
मेरे कहने का मतलब यह है की इस मुद्दे पर कम से कम सरकार को राजनीती नही करनी चाहिए क्यों की जो ९७ घंटे हमारी देश की जनता ने अपना योगदान दिया है चाहे वो फोटो खीचने को ही ले कर भले हो ...वो किसी एक पार्टी की जनता नही थी वो थी देश की आम जनता जो की अपना पैसा बचाना चाहती है जो की इन देश के फर्जी कर्णधारो के पास जमा हो जाती है...
मै इस नेताओ की इस राजनीती की गंदी आदत का जिक्र इन बातो से करना मुनासिब समझता हु....
"ये सियासत की तवायफ का दुपट्टा है यारो जो किसी की आंसुओ से तर नही होते... "
और साथ ही साथ देश की जनता जो की अन्ना के साथ अपना भी योगदान दिया को भी एक नसीहत देना चाहूँगा की की केवल इस बिल बर से ही भ्रषटाचार समाप्त नही होगा | क्यों की आम आदमी की मुसीबत ही असली लड़ाई है हम लोगो को थाने में बंद मोटरसाईकिल के टायर चोरी से लेकर टू जी स्पेक्ट्रम तक की आवाज सरकार तक पहुचानी है ...
तब ही जा कर आम लोगो की इस लड़ाई का कोई मतलब निकलकर सामने आएगा ...
हमारे कहने का मतलब ये है की हमको हर गली में एक एक अन्ना तैयार करना होगा जिससे की चोर और चोर पुलिस दोनों को मिला देने पर भी ये आम जनता के एक अन्ना से डरते फिरे और सबको अपना हक अपने हिसाब से मिलता रहे ..

Sunday, March 27, 2011

आज कल के विज्ञापन , विज्ञापन कम और चरित्र प्रमाण पत्र ज्यादा लगते है

नमस्कार मित्रो ...
होली के बाद आप लोगो का मेरे ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत है ...
मै इस होली में आपने घर गया था और जब मै घर जाता हु तो कोई काम नही होता मेरे पास तो केवल टी वी ही देख कर वक़्त बिताता हु ..
सो मैंने आपने पिछले पोस्ट में टी वी सीरियलों की बात की थी लेकिन जब इस बार मैने ये भी देखा की आज कल बाज़ार भी चाहे वो किसी विज्ञापन की बात हो या फिर फिल्मो की वो यूवाओ की नब्ज को महसूस कर लिया है और फिर इस मार्केट में एक व्यर्थ समझौता को स्थापित कर दिया है...
आप जरा ध्यान दीजिये तो पता चलेगा की किस तरह यूवाओ को समझ कर उनको ये बताया जा रहा है की ये बाजार केवल आपके लिए ही बनाया गया है ....
वैसे आप लोगो ने परफ्यूम के विज्ञापन जरुर देखा होगा की फला परफ्यूम लगाना ने लड़कियां लडको से फेविकोल जैसे चिपक जाएगी, ये टूथपेस्ट करने से लडकियाँ आपको बिल्डिंग के लिफ्ट में भी चुम्बन देगी, आपने एक अंडर वियर का विज्ञापन जरुर देखा होगा की जो लड़का उस अंडर वियर पहनता है उसको बहुत सारी लडकियाँ जंगल में उठा ले जाती है और फिर बाद में जब उस लडके को देखा जाता है तो उसके बदन पर बहुत सारे होठो के चिन्ह पाए जाते है...
हाला की ये विज्ञापन बहुत पुराने है लेकिन मैंने अभी कुछ दिन पहले होली वाले दिन एक मोबाइल का विज्ञापन देखा जिसमे ये दिखाया गया है की एक लड़का जिसके पास एक साधारण मोबाइल होता है फिर वो एक दुकान से कुछ खरीदता है और दुकानदार जो एक लडकी होती है ,के पास पास फुटकर पैसे नही होते है..तो वो दुकानदार लड़की उस साधारण मोबाइल वाले लड़के को फुटकर के बदले चोकलेट देती है..फिर उसी दुकान पर एक दूसरा लड़का आता है और उसके पास लावा का मोबाइल होता है और वो भी कुछ सामान खरीदता है और फिर बात फुटकर पर फस जाती है तो इस लावा मोबाइल वाले लडके को ये दुकानदार लड़की चोकलेट न देकर निरोध देती है...मतलब की लावा मोबाइल वाले लडके ही लडके समझे जाते है ...
फिर मै ये सोचने लगा की लडकियाँ आपसे आकर्षित होंगी ये बता कर विज्ञापन कंपनिया कितना ज्यादा व्यर्थ समझौता करती है ..लेकीन ऐसा कोई विज्ञापन नही आता जिसमे ये दिखाया गया हो की जिस तरह एक साथ बहुत सी लडकियाँ लडको से चिपक जा रही है उसी प्रकार ऐसा कोई सामान का विज्ञापन नही है जिससे की लडके भी उसी अनुपात में चिपक जाये ...
लेकिन फिर हमको लगा की विज्ञापन कंपनिया लडको के चरित्र को समझ कर विज्ञापन बनती है...
तभी तो लडकियों के चरित्र का भी चित्रण एक मोबाइल के विज्ञापन में ही किया गया है ...ये भी नया विज्ञापन है .
माईक्रोमैक्स मोबाइल जिसमे की आपको बहुत सारे कवर मिलेगे जिसका फायदा ये दिखाया गया है की एक लड़की के बहुत ज्यादा ब्वायफ्रैंड है और वो सबसे आपने मोबाइल के कवर को ही बदल कर मिलने जाती है जिससे की वो एक बार पकड़े जाने से बचती है ..
अत: इससे एक बात तो सच है की विज्ञापन कंपनियों ने लडको और लडकियों दोनों की नसों को थाम लिया है की आज के लडके क्या चाहते है और आज कल की लडकियाँ क्या करती है ?
अत:इन विज्ञापनों को देखने के बाद हमको लगा की ये विज्ञापन कम आज कल के युवाओ का चरित्र प्रमाण पत्र ज्यादा लगते है ...?
फिर मैंने सोचा की ऐसे विज्ञापनों पर रोक क्यों लगते की ये सब तो केवल खोखले दावे करते है और होता कुछ नही ...लेकीन फिर मैंने एक दिन बी कॉम की एक किताब पढ़ी जिसमे व्यर्थ समझौता के बारे में लिखा था और बताया था की व्यर्थ समझौता उसे कहते है जैसे कोई मजनू अपनी लैला से कहता है की मै तुम्हारे लिए असमान से तारे तोड़ कर लूँगा और उसे तुम्हारे बालो में सजाऊंगा और लैला इस बात को सुन कर उससे जीवन भर प्यार निभाने का वादा करती है ..लेकिन ये व्यर्थ समझौता है क्यों की इसको न्यायालय द्वारा पूरा नही कराया जा सकता ...
सो ये सब भी शायद व्यर्थ समझौता के अतर्गत ही आते होंगे...
अब चुकी बात मैंने फिल्मो की भी की है तो आज कल एक गाना मार्केट में आया है जो युवाओ को बेफिक्री और उनकी रंगबाजी को दर्शाता है ...जिसमे इसके सारे अवगुणों को बहुत सुंदर तरीके सुरबद्ध किया गया है और ये बताया गया है की आज का यूवा जनता सब कुछ है की लोग उसके कामो से खुश नही है फिर वो सब काम करता है ...
वो गाना है चार बज गये है लेकीन पार्टी अभी बाकि है ...
ये गाना भी किसी चरित्र प्रमाण पत्र से कम नही है ...
जो भी हो अब हमको तो इंतजार उस पल का है जब जीवन बीमा के विज्ञापन में भी ये दिखाया जाये की अगर आप जीवन बीमा कराते है तो इतनी लड़कियां आपके पास हमेशा मडराती रहेगी ..

Tuesday, March 22, 2011

जब जवाब भी कभी प्रश्न छोड़ जाता है......

नमस्कार मित्रो......
इस बार मै आपको कोई भी गहरी बात नही बताने जा रहा हु लेकिन जो बता रहा हु वो आपको कुछ गहराई में ले जाये ऐसा प्रयास करूंगा...
दोस्तों हम न जाने कितने लोगो से रोजाना मिलते है कुछ जानने वाले होते है तो कुछ नही जानने वाले , हम लोगो से या तो कुछ पूछते है या कुछ उनको बताते है
क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है की आप किसी से कुछ पूछ रहे है और आपको उस प्रश्न का उत्तर पता है ऐसा आपको लगता है लेकिन अचानक से आप को लगे की नही हमको तो नही पता या फिर ऐसा कुछ हुआ की आपने किसी से कुछ पूछा और और उसने उसका उत्तर न देकर एक ऐसा उत्तर दिया जो खुद आपको एक सवाल के घेरे में खड़ा कर दे ..
मै दावा करता हु की आपके साथ ऐसा जरुर हुआ होगा लेकिन आप इन छोटी बातो को ध्यान नही दिए होंगे ..
क्या स्थिति होती है जब आपके प्रश्न से एक खुद प्रश्न खड़ा हो जाता है जिससे की आप सामने वाले की तुलना नही कर पाते की ये कैसा चरित्र है ...इसका अपने हिसाब से कितना ज्ञान है ? और कितना ज्यादा है या कितना कम..?
मेरे साथ ऐसी स्थिति दों बार उत्त्पन्न हुई लेकिन मै आज तक ये सोच नही पाया की उसका जवाब जो भी था वो उसके हिसाब से कितना सही था ?
अब मै आपको उन दोनों घटनाओ के बारे में बताने जा रहा हु ...
पहली और ताज़ा घटना ये है की मेरे एक मित्र ने एक बार कहा की उन्होंने आज तक सब्जी नही खरीदी है ...
और इस बात पर हम लोग उनका बहुत मजाक उड़ाते है लेकिन वो बुरा भी नही मानते आज भी ऐसी ही बात चल रही थी की आपने तो सब्जी भी नही खरीदी है आज तक तो उन्होंने कहा नही मैने खरीदी है .
फिर हमने पूछा की क्या खरीदी है?
तो वो बोले की लहसन और अदरक ....
फिर मैंने कहा की ये कोई सब्जी होती है ...?
फिर मै तुरंत सोचा की हमको तो पता है की ये सब्जी नही है लेकिन ये फिर है क्या ?
और मै तुरंत ही और लोगो से पूछा की लहसन और अदरक क्या है...तो वह बैठे अन्य लोगो ने बताया की ये चीजे मसाले के अंतर्गत आती है ..
अब सोचने वाली बात क्या है की हमको इतना पता है की ये दों चीजे सब्जी में नही आती लेकिन इस उत्तर एक प्रश्न ये खड़ा हुआ की आखिर इनका वर्गीकरण किसमें होगा ..?
अब दूसरी घटना ये है की एक बार मै मेस में यू ही बैठा था और मेस के दों छोटे छोटे बच्चे जिनकी उम्र करीब १० साल होगी..
मैंने उन दोनों को पास बुलाया उनमे से एक से मिने पूछा की मान लो की तुम्हारे पास दस रसगुल्ले है और तुमने उनको कही छुपा कर रख दिया है की बाद में जब मन होगा तब खाओगे लेकिन तुम्हारा मित्र (दुसरे लडके को इशारा करते हुए) जिसको तुम्हारे रसगुल्लों के बारे में पता है ने जा कर दस रसगुल्लों में से चार रसगुल्ला खा लिया ...और जब तुम वहा गये तो तो देखे की वह पर सिर्फ पांच रसगुल्ले है.. तो कितने रसगुल्ले और हो जाये तो तुम्हारे दसो रसगुल्लों का हिसाब मिल जाये ..
हाला की उसको प्रश्न कई बार समझाना पड़ा लेकिन जब मैंने उसका उत्तर सुना तो मै खुद एक सवाल में घिर गया की इसका उत्तर सही है या गलत...?
इसने क्या सोच कर ये उत्तर दिया होगा ...
अब मै आप लोगो को उसका उत्तर बताता हु ...प्रश्न के हिसाब से तो उत्तर हुआ की अगर एक रसगुल्ला और मिल जाये तो दसो रसगुल्लों का हिसाब मिल जायेगा ...
लेकिन उसका उत्तर था की उसका मित्र चार रसगुल्ला खा ही नही पायेगा...
और उसका ये जवाब सुन कर मै फिर उसको सही उत्तर बता ही सका ....
क्यों की हमको उसका जवाब भी सही लग रहा था की वो छोटा लड़का चार रसगुल खा ही नही सकता...
लेकिन हमको अपना सवाल भी सही लग रहा था...
तो मित्रो कभी कभी हम खुद के द्वारा किये सवालो से घिर जाते है ....
और उसका जवाब भी कही न कही एक प्रश्न छोड़ जाता है..............

Saturday, March 19, 2011

मेरे ढाई महीने बराबर लाडो के पांच साल

नमस्कार मित्रो....
इस बार मै किसी एक विषय पर नही लिख रहा हु मै बस ये सोच रहा था और इसको कलमबद्ध कर दिया ...
होली का त्यौहार है और मै भी इस वक़्त अपने घर पर हु मै इस बार अपने घर करीब ढाई महीने बाद अपने घर गया सो इस बार हमको कोई नई खबर नही प्राप्त हुई ...
हाला की मेरे एक दोस्त ने हमसे फेसबुक पर पूछा था की घर पर सब कैसे है तो मैंने उससे कहा की अभी तो ये बात मैंने किसी घर वाले से पूछा ही नही ...फिर अगले दिन मैंने अपने घर वाले से पूछा की आप लोग कैसे है ?कोई नया समाचार ? तो माता जी बोली की नही कोई ऐसा नही है की तुमको पता न हो ...
फिर मैंने उनके उत्तर को याद कर लिया और उसके बाद जब मेरे वो दोस्त हमको ऑनलाइन मिले तो मैंने उनके प्रश्न की घर पर सब कैसे है का जवाब उनको दे दिया....
उसके बाद मै टी वी देखने लगा ...मुझे टीवी पर के परिवारिक झगड़े बहुत पसंद है क्यों उसको देख कर हमको शांति मिलती है की लोग लाख कहें की घोर कलयुग आ गया है फिर भी हमको ऐसा कोई परिवार दिखाई नही देता जिसमे की हमको एकता कपूर के टीवी के जैसे खतरनाक परिवार दिखाई देते है ...
फिर भी हम सब जानते हुए भी उनके परिवार में दिलचस्पी ज्यादा दिखाते है अपने परिवार के बजाय...
लेकिन जब मै इस बार टीवी देखा तो कलर्स पर न आना इस देश मेरी लाडो आ रहा था ... और फिर मैंने जो भी देखा वो मुझे थोडा भी समझ नही आ रहा था क्यों की सब किरदार जो मैंने ढाई महीने पहले देखे थे उनमे से बहुत कम ही हमको दिखयी दे रहे जब इसके में मैंने अपनी बहन से पूछा की ये नये चेहरे कौन है ...?
तो उसने बोला की पुराने वाले सब चले गये शिया और राघव की मौत हो गयी है और अब कहानी को पांच साल बाद दिखया जा रहा है ...फिर मैंने देखा की अम्मा जी लडकी अम्बा को एक उसकी हम उम्र लडकी ही बुआ बोल रही थी ...तब मैंने सोचा की मेरे ढाई महीने में इन लोगो पांच साल बिता दिए और पांच साल भी कैसे जिस हिसाब से राघव की लडकी ने राघव की बहन जिसको अम्मा जी ने बहुत पहले ही निकल दिया था जिसका नाम अम्बा है को बुआ कह रही थी और उसकी उम्र भी करीब २० साल की होगी तो कहानी केवल पांच साल ही आगे कैसे जा सकती है ?
फिर मैंने जी टीवी लगाया और छोटी बहू देखने लगा तो पता चला की इसकी स्पीड तो लाडो से भी ज्यादा है इसकी कहानी तो अब अगले जन्म की शुरू हो गयी है ...
और फिर मैंने अपनी बहन से बन्दिनी के बारे में पूछा तो पता चला की वो खत्म हो गया है तो कुछ जा कर दिल को सुकून मिला ...
फिर जब इन सब की बात हो गयी तो मै उतरन के बारे कैसे न पता लगता तो उसके बारे वही हुआ जिसका डर था की तपस्या को इच्छा ने एक बार फिर माफ़ कर के उसको अपने घर बुला लिया है और इस होली पर प्रतिज्ञा की है उसके चेहरे पर से झूठ का नकाब उतार देगी...
जब मैंने ये सब देखा तो सोचा की मैंने अपने दोस्त को गलत बता दिया की घर पर कुछ नया नही हुआ है यहा तो जैसे जैसे महंगाई बढ़ रही है वैसे टीवी सीरियलों में माओ को उम्र घट रही है ..
मैंने जब जब एक माँ को देखा की वो जींस और टी शर्ट पहनी हुई है और उसमे भी उसके टी शर्ट में बाहों की कमी है फिर मैंने उसकी लडके को देखा और फिर उस लडके की प्रेमिका को देखा हमको लगा की प्रेमिका की उम्र शायद माँ की उम्र से ज्यादा है ...
हमको लग रहा है की आप मेरे इस लेख में क्न्फ्युस हो रहे है ...(ये सीरियल स्टार वन पर प्यार की एक अनोखी कहानी )अगर ऐसा है तो मै अपने मकसद में कामयाब हो गया की इन कहानियों को हम जब समझ नि पते तो देखते क्यों है..?
और सबसे बड़ी बात ये है की हम इन सीरियलों पर रोज कितना टाइम बर्बाद करते है और ये लोग जब मन करता है तब कहानी को आगे बढ़ा देते है या माँ को ही बदल देते है...
फिर हम लोग उसी दिलचस्पी से इनको देखते है ...

Thursday, March 17, 2011

इस होली रंग बरसना जरूरी है...

नमस्कार मित्रो....

होली का त्यौहार है....कल मै भी इस रंगीन पर्व में शामिल होने के लिए उत्तेर प्रदेश परिवहन की सेवा ले कर अपने गृह जनपद गाजीपुर आ गया हु ....

हर तरफ रंग बरसे टाइप के गाने सुनने को मिल रहे है...कल जब मैंने ये गाना बस में सुना तो एका एक मेरे मन ये सवाल पैदा हुआ की क्या इस बार रंग बरसना जरूरी है जब की इतना कुछ पहले से ही बरस चूका है...

अब आप सोच रहे होगे की मै क्या बरसने की बात कर रहा हु....

मेरे कहने का मतलब है की मायावती द्वारा विपक्ष पर लाठिया बरस चुकी है अभी अपना दल का विरोध बाकि है देखते है की सोने लाल पटेल के सोने के बाद अपना दल कैसे लोगो को अपना बनाती है? वैसे एक बात की इन लाठियों को भी राजनितिक दल एक हथियार बना रही है ....

ठीक इसी तरह प्रणव दा ने रंगों की जगह सांसद निधि बरसा दी .अब हमारे माननीय लोग पहले वाला ही नही खर्च कर पा रहे है तो बाकि जो बढ़ा है उसको कैसे खर्च करेगे ?ये तो वही जान सकते है ....

बरसने के इसी क्रम में हशन अली

को जमानत दे कर उसपर रहम बरसा दी ...आशीष नेहरा ने ने अपनी कबिलियत से हमारे देश पर हार बरसा दिया ...

और एन डी टी वी ने ३ करोड़ की शादी बरसा दी है

और ऐ राजा की बरसात ने तो सबको गिला कर दिया है...

कुदरत ने भी जापान पर कहर बरसा दिया ..हाला की जापान के साथ साथ हम लोगो की हमदर्दी है ....

सो मेरी तरफ से ये नही लगता की अब इस होली में रंग बरसना जरूरी है....

आपको क्या लगता है....?

Sunday, March 13, 2011

एक मैच का आँखों देखा हाल...

नमस्कार मित्रो....
विश्व कप का समय चल रहा है...बहुत दिनों के बाद हम आम लोगो की जुबान पर कोई काम की बात हो रही है ...
नही तो इससे पहले हम लोग केवल कामन वेल्थ और कला धन में ही अपनी बुद्धि लगाये पड़े थे की अगर सारा पैसा हमारे देश आ जाये तो हम लोगो के पास इतने रूपये हो जायेगे..
मेरे होस्टल का चपरासी उमेश ने तो यह तक सोच लिया था की जैसे ही पैसा उसके पास आएगा वो एक सत्तर हजार गाड़ी खरीदेगा मैंने उससे पूछा की लेकिन गाड़ी कौन सी खरीदोगे ?
तो वो बोला की कोई भी जो सत्तर हजार में मिल जाये तब मुझे पता चल गया की कैसे लोग कंचन और कामिनी के आ जाने से बावरे हो जाते है और अब्दुल करीम तेलगी के जैसे पकड़े जाते है ...
फिर मैंने उमेश से कहा की गाड़ी के भर तो पैसे नही है तुम्हारे पास लेकिन अगर चाहो तो अभी हेलमेट खरीद सकते हो...
खैर छोडिये इस बात को बात हम लोग मैच की कर रहे है ...
अब मै आप लोगो को कल के मैच का आँखों देखा हाल बताने जा रहा हु ...
एक ऐसा आँखों देखा हाल जो पहले कानो सुने हाल के बाद देखा गया है ....
हुआ यू की कल शाम को जब मै अपने कमरे में बैठा था तब साऊथ अफ्रीका का दों विकेट गिर चूका था और मै अपने मित्र से अपने कमरे में बात कर रहा था...लेकिन जैसे ही कोई बात होती तो कामन हाल में बच्चे शोर मचाते और हमको पता चल जाता की साऊथ अफ्रीका एक और विकेट गिर गया और इसी कानो सुने मैच के हाल से मै खुश था की मै भी लोगो के साथ तमाम सूचनाओ से अपडेट हो जा रहा हु ...जैसे शोर होता मै दों विकेट के बाद की गिनती को आगे बढ़ा लेता और फिर अपने मित्र से बात करने लगता ....
फिर बार बार शोर होता और मेरी गिनती दस विकेट तक पहुच चुकी थी और साऊथ अफ्रीका मेरे हिसाब से हार
चुकी थी
लेकिन थोड़ी देर फिर शोर मचा तो मै सोचा की अब क्यों बच्चे हल्ला कर रहे है तो मुझसे रहा नही गया और मै भी कामन हाल में मैच देखने पहुच गया...
वह देखा तो अभी साऊथ अफ्रीका के सिर्फ छ: विकेट ही गिरे है और मै सम्पूर्ण भारत वर्ष में अकेला ऐसा प्राणी था जो ये खुद ही घोषित कर चूका था की भारत ये मैच जीत चूका है....
फिर मै ये सोचने लगा की आखिर ये बच्चे हल्ला क्यों मचा रहे थे इस सवाल का जवाब मै किसी से पूछने ही वाला था की कैमरामैन
जो की मैच का सीधा प्रसारण हम लोगो को दिखा रहे थे ने अपने कैमरे
का रुख स्टेडियम में मैच का लुफ्त उठा रही एक सुंदर कन्या पर कर दिया वो भी पूरा जूम कर के जिससे हमारे टी वी स्क्रीन पर केवल उस कन्या जिसके चेहरे को गढने मेंभगवान
ने सच मुच में बहुत मेहनत करी होगी...का चेहरा ही दिख रहा था
और जैसे ही वो चेहरा बच्चो ने देखा शोर ,सराबा , सीटिया, के साथ साथ जितनी भी सृजनातमक्ताये लडको में थी सबका खुला प्रदर्शन हो गया और हम को खुद ही पता चल गया की किस कारण हमने बैठे बैठे ही साऊथ अफ्रीका के सारे विकेट गिरा दिए ....
फिर उसके बाद हम लोग मैच देखने लगे जब जब कैमरा मैन वो क्रिया दोहरा रहा था तब तब न्यूटन का तीसरा नियम (क्रिया प्रतिक्रिया ) भी बच्चे सिद्ध कर रहे थे ....
हाला की जब जब विकेट गिर रहा था तब भी बच्चे खुश हो रहे थे लेकिन उत्त्साह में कमी दिख रही थी ...एक बार तो कैमरा मैन ने एक आंटी
जी को जूम कर के दिखा दिया और बच्चे जल्दीबाजी में उनको देख कर भी वही काम कर दिए...
फिर मैंने सोचा की किसी ने सही कहा है की
इस निर्दोष जवानी पर मत जाओ यारो इस उम्र में हर लोग बहक जाते है ...और मैंने उनकी भावनाओ का खुला समर्थन किया ...
धीरे धीरे मैच अपने नतीजे की तरफ जा रहा था और मुकाबला कांटे
का हो गया था अंतिम ओवर में आशीस नेहरा गेंद बजी करने आये और पहली बाल में ही चार रन दे दिए और हम लोगो को पता चल गया था की मैच हम लोगो के हाथ से निकल गया है...उसी बीच कैमरा मैन ने स्टेडियम से एक और सुंदर मुखड़े की स्वामिनी को
अपने कैमरे के माध्यम से हम लोगो तक पहुचाया ,लेकिन इस बार बच्चो को हार
की चिंता सता रही थी लिहाजा इस बार इन लोगो ने ऐसा कुछ नही किया जो ये कुछ देर पूर्व करते आये थे...
इन लोगो को इस दशा को देख कर हमने ये लग गया की लोग सच कहते है की वक़्त के साथ साथ सब लोग बदल जाते है ...बच्चे भी एकदम शांत
हो कर मन में देश की जीत की दुआ करते हुए मैच देख रहे थे...और इसी बीच नेहरा ने एक छक्का मरवा दिया और हम लोगो के मैच जितने की सारी प्रायिकताये समाप्त हो गयी..
तो ये था लाल बहादुर शास्त्री छात्रावास से भारत और साऊथ अफ्रीका के मैच का आँखों देखा हाल......

Thursday, March 10, 2011

चालाकी या फिर बेवकूफी....


नमस्कार मित्रो.....
आज मै आप लोगो ताज़ा घटनाक्रम के बारे में कुछ बताना चाह रहा हु. वैसे आप लोगो से ये विनती करता हु की इस लेख का मतलब ये बिलकुल मत निकालिए गा की मै किसी भी व्यक्तिगत दल की पैरवी कर रहा हु...
लेकिन आप ऐसा मतलब निकाल भी लेगे तो कोई बात नही क्यों की मै भी जो लिखता हु वो किसी न किसी घटना का कोई न कोई मतलब ही होता है...
अब आप ये सोच रहे होगे की मै आप से ये क्यों रहा हु की
इस लेख का ये बिलकुल मत निकालिए गा की मै किसी भी व्यक्तिगत दल की पैरवी कर रहा हु...क्यों की मै बात राजनीती की नही बल्कि मै राजनीती के माध्यम से प्रशासन की बात करने जा रहा हु...
आप लोगो को पता होगा की अभी पिछले ७,८,९ को समाजवादी पार्टी का प्रदेश सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन था...
जिसमे की समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओ ने तीन दिन तक जम के नारेबाजी की और अपना विरोध दर्ज कराया लेकिन कल की जो घटना मैंने देखी और आज के समाचार में देखा और पढ़ा भी...की कोई पुलिसे का एक बड़ा अधिकारी जिसने अपनी पद की गरिमा तो छोडिये मानवता को भी कुचल डाला ...उसने समाजवादी पार्टी के एक कार्यकर्ता को न सिर्फ घसीटा बल्कि उसके मुह पर अपना जूता रख कर उसकी पिटाई भी की ...
उसको पिटते हुए देख कर लग रहा है की वो कोई पुलिसे अधिकारी की हैसियत से नही बल्कि मायावती के रिश्तेदार की हैसियत से पीट रहा है...
हाला की मै उसकी परिस्थिति से वाकिफ हु लेकिन परिस्थिति से निपटने का ये कोई तरीका कोई एक जिम्मेदार अधिकारी अपनाये वो भी वह जहा उससे भी पता है की पत्रकारों के कैमरे ऑन है...
जब की न्यायालय द्वारा आयोजको ये निर्देश जारी किया गया था की अगर इस प्रदर्शन के दौरान किसी भी सार्वजनिक सम्पत्ति का नुकसान होता है तो उसकी जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ अयोजो की होगी..
इससे ये पता चलता है की समाज में कोई अव्यवस्था न फैले इसकी चिंता न्यायालय को भी है...केवल इसकी जिम्मेदारी मायावती को ही नही है ...
और जिम्मेदारी होती तो उस वक़्त जब हमारे प्रदेश के लोगो ने मेरे होशो हवास की सबसे कठिन परीक्षा पास की...(अयोध्या फैसला ) तब मायावती का केवल एक बयान आया और जो ये साबित करता है की मायावती को खुद नही पता था की उनका नेतृत्व इतना कमजोर है और इस प्रदेश के लोग इतने समझदार....
वो बयान था की अगर फैसले के बाद प्रदेश में कुछ गतल होता है तो उसकी जिम्मेदार केंद्र सरकार होगी...क्यों की जिंतनी अतिरिक्त फ़ोर्स मैंने मांगी थी वो हमे दी नही गयी..
इसका मतलब ये था की जब प्रदेश का माहौल कैसा भी हो सकता था तब उनको लोगो की नही बल्कि सरकार की चिंता थी...
खैर छोडिये इन बातो को ....हम लोग मुद्दे पर आते है...
मै बात उस पुलिसे वाले की कर रहा था...फिर मैंने सोचा की वो तो पदम सिंह जैसा नही था जिसने मायावती की जुती साफ की और अपने ओहदे को गंदा
मेरे कहने का मतलब ये था की उसको तो पता ही था की पत्रकारों के कैमरे ऑन है उसने तो पदम सिंह जैसा धोका नही खाया ...
लेकिन फिर मेरी समझ में आया हो सकता की ये बोतली तस्वीर इनको पदम सिंह जैसा बनने में प्रथम सीढ़ी साबित हो...
हाला की मायावती जी इन सब मामलो में बहुत इमानदार है वो जिस पर खुश हो जाती है...तो हो ही जाती है..(आब्दी साहब )
लेकिन कुछ भी हो किसी भी जिम्मेदार अधिकारी को ये बर्ताव क्ति शोभा नही देता...
लेकिन ये इनकी चालाकी है या फिर बेवकूफी ?
ये तो यही बता सकते है....

Saturday, March 5, 2011

प्रबन्धन में फेल हमारी हर सरकार ....

नमस्कार मित्रो....
अभी मै कुछ दिन पूर्व पूर्वांचल गया हुआ था जिसके दौरान मैंने कई जिलो और उन जिलो के कई गांवो में भी गया था..हाला की मै भी पूर्वांचल का ही रहने वाला हु..गाजीपुर जिले के उतराव का..
लेकिन पता नही क्यों मै अपने गाव को देख कर ये नही सोच पाया जो इन गांवो को देख कर सोच रहा हु...इसका मतलब ये नही है की मेरा गांव बहुत हाई प्रोफ़ाईल है.
मित्रो जब मै इन गांवो में घूमता था तो मुझे निजी कंपनियों के प्रबन्धन पर बहुत ताज्जुब हुआ और मेरे मन में ये सवाल उठा की अगर सरकार भी निजी कंपनियों की हो जाये तो बात बन सकती है ...
बात बनने से मेरा मतलब ये है की सरकार चाहे जिसकी हो और वो जनहित में चाहे कितनी भी योजनाये चला रही हो..वो योजनाये हमारे गांवो तक पूछ ही नही पा रही है...लेकिन अगर बीच में कोई सत्ता दल के नेता उस गांव में पहुच गया तो रातो रात सब योजनाये लागु हो जाती है ...लेकीन नेता जी भी की क्या गलती वो तो रोज ही पहुच जाये पर कमबख्त चुनाव ही पांच सालो में एक बार आता है
और जब चुनाव आता है तो नेता जी पहुचते है और योजना चालू हो जाती है...अभी कुछ दिन पूर्व मैंने देखा की एक गांव में मुख्यमंत्री का दौरा था और इस दौरे को सकुशल निपटने के लिए उस गांव का जीर्णोद्वार यूद्ध स्तर पर जारी था..और काम देख कर हमको टी वी पर आने वाला एक सीमेंट का विज्ञापन याद आ गया जिसमे की सब कुछ बहुत तेजी से बनता हुआ दिखाया जा रहा है ...
खैर छोडिये इन बातो को....मै बात कर रहा था की निजी कंपनियों की प्रबन्धन की ....
जरा सोचिये की वो गांव जहा पर अभी तक बाल श्रम कानून नही पहुचा है वह पर एच डी ऍफ़ सी का चाइल्ड इन्सुरेंस प्लान पहुच चूका है. अब जरा सोचिये की जब गांव के लोगो को ये नही पता की छोटे बच्चो को काम करना अपराध है और इसके लिए सरकार ने कानून भी बनाया है..इस प्रकार के मानसिक स्थिति के लोगो पर निजी कंपनियों ने कितना विश्वास जताया है और अपना विज्ञापन न केवल भेजा है बल्कि उसे उसी वक़्त लागु भी किया है...
कहा जाता है की भारत गांवो का देश है और मैंने जो गांव देखा उसमे भारत सरकार का एक भी सर्वजनिक पी सी ओ नही था लेकिन टाटा डो को मो की सेवा थी और वो भी उस्सी दिन शुरू की गयी थी जिस दिन वो सेवा महानगरो में शुरू की गयी थी ...मतलब की निजी कंपनियों ने हमारी सरकार की तरह गांवो के साथ किसी प्रकार का भेद भाव नही किया ...
हमने गांव में कोई सरकारी हैण्डपम्प देखा लिकिन बिसलरी का बोतल जरुर देखी ...
हमे उन गांवो में कोई ऐसा अस्पताल नही देखा जहा की अल्ट्रा साउंड, सी टी स्कैन जैसी सुविधा उपलब्ध हो लेकिन हर एक या दों किलोमीटर पर महा ठंडी बियर की दुकान जरुर देखा...
और जब मै इन बातो होटल पहुच कर सोच रहा था तब संयोग से टी वी चल रही थी और उस पर विज्ञापन चल रहा था वो भी भारत सरकार की हिंदुस्तान जाग रहा है...
अब मै ये सोचने लगा की १५ अगस्त १९४७ के बाद अब जाग रहा हमारा हिंदुस्तान ...ये है हमारा सरकारी प्रबन्धन जो की आधा अधुरा लागु होने में भी ६२ -६३ वर्ष का समय लग गया और दूसरी तरफ हमारे देश की निजी कंपनिया जो योजनाये तत्काल लागु कर देती है इन गांवो के लिए ..
अब मैंने तो सोच लिया जरा आप भी सरकार से निजी कंपनियों के प्रबन्धन की तुलना कीजिये...और बताईये की सर्व श्रेठ कौन है ?

हम न होते तो क्या होता ?

नमस्कार मित्रो.....
बहुत दिनों की अनुपस्थिति के बाद मै एक बार फिर अपना विचार ले कर आपके बीच उपस्थित हु...
जब बात अनुपस्थिति की ही हो रही है तो मेरे दिमाग में एक बात आई की मै न होता तो क्या होता....?
तो सोचा की आज इसी पर कुछ लिख दिया जाये....क्यों की मै जब कोलेज में पढ़ता था तो एक लेख पढ़ा था जो हम लोगो की किताब के पाठ्यक्रम में था..अब वो लेख है या नही इसकी हमको जानकारी नही है...वो लेख था पंडित प्रताप नारायण मिश्र का और नाम था मित्रता ...उसमे एक पंक्ति थी की व्यक्ति की उपस्थिति का एहसास तब ही पता चलता है जब वो अनुपस्थित रहता है..मतलब की किसी की क्या एहमियत है वो उसकी अनुपस्थिति ही बयाँ कर सकती है....
वैसे हम लोग इस बार खुद ही ये जानने की कोशिश करेंगे की हम न होते तो क्या होता ? इसमें किसी भी बाहरी व्यक्ति का कोई सहयोग नही लिया जायेगा....
हल की ये काम बहुत कठिन है क्यों हमको अपनी एहमियत खुद ही सिद्ध करनी होगी...और आम तौर हर आदमी को थी लगता है की वो इस दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण और समझदार व्यक्ति है...और आज के वक़्त में आप किसी को मुर्ख कह भी नही सकते इस दुनिया में जहा तक मेरे जानकारी का सवाल केवल दो लोग है जिसने किसी को मुर्ख कहने की हिम्मत है...
१-यूधिस्ठिर जी ने यछ महाराज से कहा था की जब यछ जी यूधिस्ठिर जी से सवाल किया की दुनिया में सबसे मुर्ख कौन है ? तब यूधिस्ठिर जी ने उत्तर दिया की मनुष्य क्यों की वो रोजाना कितनो को मरता देखता है और फिर भी सोचता है की वो अमर है ..
और दूसरा हिम्मत वाला मेरे के क्लास का है जो हमसे अभी कुछ दिन पूर्व कहा की मनीष तुम बहुत मंद बुद्धि हो ....लेकिन मैंने भी उसके बयान पर कोई प्रतिक्रिया नही दी क्यों मुझे तुरंत यूधिस्ठिर जी की बात याद गयी और फिर मैंने सोचा की यूधिस्ठिर जी कभी असत्य नही कहते थे सो मैंने उसकी बात लिया ..
खैर छोडिये हम लोग तो अपनी अनुपस्थिति की बात कर रहे थे न....? की हम न होते तो क्या होता ?
कितना अजीब लगता है न ये सोच कर भी की हम न होते तो क्या होता....? और यकीन मानिये तो मेरे हाथ काम नही कर रहे है इस बात लिखने के लिए..
जरा सोचिये की हम लोगो ने अपने जीवन काल न जाने कितने काम किये है कुछ अच्छे तो कुछ खराब भी..
लेकिन आज मेरे पास लिखने के लिए कुछ भी नही है...
जब की एक सीधी सी बात है की हम लोगो के होने से जो जो काम हुआ है अगर हम न होते तो वो वो काम नही होता ...लेकिन इतना कह देना खुद के साथ बेमानी सी लगती है ...
लेकिन इस बार मैंने ठान ली है की अपने इस लेख में कही भी राजनीती नही लाऊंगा ..
फिर एक दिन ऐसे ही मैंने अपने दो दोस्तों से बात करने लगा चुकी वक़्त ज्यादा था और लोग कम थे इस लिए हम अपने घर की भी बात करने लगे उस बात चीत में मैंने कुछ अपनी कही और कुछ उनकी सुनी..
लेकिन उन लोगो ने हमसे कहा की तुम्हारे घर के लोगो को तुमसे बहुत दुःख होता होगा लेकिन वो तुमसे कह नही पा रहे होंगे...
फिर मैंने सोचा की मैंने तो कोई गलत काम किया ही नही लेकिन जब मेरी बात से ही सामने वाले को मै गलत लग रहा हु तो कुछ तो बात जरुर होगी...
फिर उनमे से एक ने कहा की तुम क्या हो...? तुम जैसे हो वैसे ही हो या फिर कोई और छुपा चेहरा है तुम्हारा ? कभी कभी ऐसा लगता है दुनिया की समझ तुमको बहुत ज्यादा है...
फिर मैंने सोचा की जब मै हु तो लोगो नही समझ में आ रहा हु तो अगर नही होता तो क्या होता ?
मैंने उनके सभी प्रश्नों का उत्तर दिया लेकिन हमको उनकी ये बात की तुम्हारे घर के लोगो को तुमसे बहुत दुःख होता होगा लेकिन वो तुमसे कह नही पा रहे होंगे...बहुत देर तक उलझन में डाली रही...
लेकिन मुझको पता भी चल गया था की मै न होता तो क्या होता....शायद मेरे घर वालो को दुःख नही होता अगर मेरे दोस्त सही कह रहे होंगे तो ...
और भी काम मैंने किये है जो अच्छे है लेकिन जब सामने वाले ने ये कह ही दिया है तो उनकी बात ही हमको सबसे महत्वपूर्ण लगती है ...मै न होता तो मेरे घर वालो को दुःख न होता ....

Monday, February 7, 2011

महंगाई या प्रलोभन.....?

नमस्कार मित्रो.....
आशा करता हु की कल जो मैंने नया सिद्धांत निकला और उसको सिद्ध भी किया वो आपको पसंद आया होगा...
वैसे आपको कोई बात नही समझ में आई होगी तो हमसे जरुर पूछ लीजियेगा मै उसको समझाने का पूरा प्रयत्न करूंगा...
वैसे आज हम लोग बात करेगे एक बहुत ही सवेदनशील मुद्दे पर....वो मुद्दा है पढाई लिखाई का मुद्दा...
आज हम लोग बात करेंगे की लोगो किताबो से मोह भंग क्यों हो रहा है....? क्या कारण है इसके पीछे....?
कहते है की पढाई लिखाई से तो भूत भी भागता है फिर हम तो इन्सान है....
कुछ भी बात करने से पहले मै आपको ये बताना चाहता हु की मै केवल भारतीय लोगो की ही बात कर रहा हु....
हाला की हमारे देश में पढ़े लिखो की प्रतिशतता बहुत ज्यादा है...फिर भी कही न कही हम लोग का मोह किताबो से भंग होता जा रहा है...
मै यहाँ किसी बीजगडित,अंक गडित या फिर किसी विशेष विषय के बारे में नही कह रहा हु...
क्यों की हम भारतवाशी इन्ही किताबो को पढ़ कर अपनी प्रतिशतता बनाये हुए है....
लेकिन एक बात तो मानना पड़ेगा...आपको आप इन किताबो को पढ़ कर अपने सम्बन्धित छेत्र में तो पारंगत हो सकते है लेकिन आप समाजिक छेत्र में कुछ नही कर सकते...
फिर भी क्या कारण है की हम लोग साहित्य , उपन्यास और कला से सबंधित किताबो से मुह मोड़ लेते है....?
इसका उदहरड भी मै आपको देता हु जिससे की मै ये लेख लिखने को मजबूर हुआ.....
हुआ यु की आज मै विश्वविद्यालय गया तो मेरे डिपार्टमेंट के सामने एक खाली मैदान है जिसमे आज कल एक पुस्तक मेला लगा हुआ है...
और जहा पर मेला का प्रवेश द्वार है वह लिखा है की इस मेले में आपका प्रवेश निः शुल्क है ....
अर्थार्त आपको प्रवेश करने का कोई व्यय नही देना होगा....
इसके पीछे आयोजन समिति का उद्देश्य क्या होगा ? क्या ये तय करते वक़्त आयोजन समिति ने देश की महंगाई के बारे में सोचा होगा की प्याज ,पेट्रोल ,चीनी सब कुछ महंगा है अब जनता पर कोई और भार न पड़े इस मेले के वजह से ...?
या कोई प्रलोभन होगा लोगो को बुलाने कर लिए....?ये हमको नही पता ,,,,
लेकिन मेरा दिमाग क्या कहता है की शायद आयोजन समिति ने सोचा होगा की अगर प्रवेश का भी कोई कर लगा दिया जाये तो लोग बहुत कम हो जायेंगे.....
लोग क्यों कम हो जायेंगे या हो जाते है ?ये बहुत सोचनीय विषय है.....
क्या हम लोग आज इतने काबिल हो गये है जितना हमको होना चाहिए....या जितना हमको हमारे पूर्वजो में बना कर छोड़ा था...
शायद नही...
तो फिर क्यों हमको किसी पुस्तक मेले में बुलाने के लिए कोई शुल्क नही रखा गया है...?
जब की हमारे घर में उतने खर्चो वाला कुत्ता पलता है जितने में एक परिवार भी पल सकता है....
लेकिन सब से विडम्बना यही है की जब हम लोग कुछ भी लिखते है या बोलते है तो हम लोग बहुत ही साफ और नेक विचारो वाले हो जाते है....और जैसे ही हम लोग वास्तविक दुनिया में आते है तो सारे विचार धरे के धरे रह जाते है....
तो जरूरत ये है की हम जो भी सोचे वो वास्तविकता में भी वास्विक हो.....
तब शायद किसी पुस्तक मेले में किसी को बुलाने के लिए निः शुल्क प्रवेश का प्रलोभन नही दिया जायेगा....